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Tuesday, October 18, 2022

महानगर में उमा-महेश के साक्षात दर्शन

मुझे महादेव और माता पारवती जहाँ-तहाँ रूप बदल-बदल कर दर्शन देते रहते हैं। कभी सवेरे पैदल सिद्धिविनायक मंदिर जाते समय भोलेनाथ फुटपाथ पर बैठे माँ पारवती के केश संवारते हुए दिख जाते हैं, तो कभी कोई मित्र शिव-पारवती की बाल गणेश के संग रेल की पटरियों के किनारे मुस्काता हुआ छायाचित्र फेसबुक पर पोस्ट कर देता है। आज माँ अन्नपूर्णा भोलेनाथ को इस व्यस्त महानगरी के एक सुस्ताए-अलसाए से रोड के किनारे जिमा रहीं थीं और भोलेनाथ चुपचाप मुस्काते हुए भोजन ग्रहण कर रहे थे। 

ना जाने कितने लंबे मार्ग इन्होंने एक दूजे की ऊँगली थामे काटे होंगे। जाने कितनी बार एक-दूजे का सहारा बने होंगे, चिलचिलाते घाम में एक-दूजे को छाया दी होगी।

पर ये तो साधारण मनुष्य ही हैं, नहीं? तो फिर ये शिव-पारवती कैसे हुए?

ब्रह्म तो हम सभी में हैं, हम सब ब्रह्म है – "अहम् ब्रह्मस्मि, तत् त्वम् असी"... पर उसका रूप जागृत तपस्या से होता है। 

पर इन्होंने कौन सी तपस्या की होगी, और मुझे कैसे पता कि तपस्या की?
दाम्पत्य अपने आप में तपस्या है। एक-दूसरे के लिए जो समर्पण भाव यौवन के "बाबू-शोना" वाले दिखावे के पश्चात् जीवन के पतझड़ में भी दिखे - बस वही वास्तविक प्रेम है और तपस्या का फल है, बाकी सब माया! जिस किसी में इस तप का दर्शन हो जाए, उसे ही मन-ही-मन उमा-महेश्वर मान कर नतमस्तक हो लो। कभी ये दर्शन सर्वसुलभ थे, आज कठिन हैं, और कल दुर्लभ हो जाएंगे।

#MyChoice #नारीवाद के समय में जब सम्बन्धों का गर्भपात सामान्य बात है, जब वामपंथी बुद्धिजीवी "विवाह संस्थागत प्रॉस्टिट्यूशन है" जैसी बातें कर लोगों की वाहवाही लूट रहे हैं, तब महादेव अपनी पार्वती को ले कर कैलाश ना जा बसेंगे तो और क्या करेंगे!
Oct 08, 2018
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(कहानी) अर्जुन की भटकन उसे निर्जन मन्दिर ले आई

जाने किस अपरिभाषित खोज में नगर-नगर, ग्राम-ग्राम भटकटे हुए आज अर्जुन किसी सुदूर घाट पर बैठा सूर्योदय देख रहा था। अब तक मंदिर में बज रही घंटी और आरती के स्वर कब पखावज की थाप में रूपांतरित हो चुके थे ये पता ही ना चला। कहाँ से आ रही थी ये थाप?

जहाँ घाट समाप्त होता है, उसी ओर, कुछ ही दूर, पुराना सा मंदिर... और मंदिर के प्रांगण में दो मानव आकृतियाँ – दो सिल्यूएट।

मंदिर के द्वार की सीढ़ियों की एक ओर बने चबूतरे पर बैठा कोई विरल सा पुरुष मृदंग से मानो यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित करने के प्रयत्न कर रहा हो। अभी गति धीमी थी... लौह-पथ-गामिनी अपने अगले गंतव्य की ओर यात्रा प्रारंभ कर ही रही थी।

दूसरी आकृति पखावज पर पड़ते हर थाप के साथ भंगिमा बदल रही थी। सूर्योदय के लोहित आकाश की पृष्ठभूमि पर जैसे पारद शब्द उकेर रहा हो – शब्द जो क्रमबद्ध-लयबद्ध हो पंक्तियाँ रच रहे हों और पंक्तियाँ कोई कविता। 

लौह-पथ-गामिनी द्रुत गति पकड़ चुकी थी। एक ओर यज्ञकुण्ड में धधकती अग्नि की लपटें किसी स्त्री का शरीर धारण कर मंदिर के प्रांगण में नृत्याभ्यास में लीन थी, दूसरी ओर उसी अग्नि का ताप पखावज के पानों से निगर्त हो रहा था – पखावज छंदबद्ध ऋचाओं का पाठ कर रहा था। सबकुछ तरल था और हर भंगिमा उस तरल में उठती तरंगें।

दूर-दूर तक कोई और इन्हें देखने-सुनने वाला नहीं था – गाँव इस निर्जन स्थान से दूर था। संयोगवश, अपनी भटकन में आज अर्जुन ने किसी सघन वन में खिले दिव्य पुष्प के दर्शन पा लिए थे।

सम्मोहन टूटा – नृत्यांगना पखावज वादक के समक्ष शशांकासन में बिछी भारी श्वास भर रही थी। वादक बिना कोई प्रतिक्रिया दिये, चुपचाप उठ, उस जीर्ण-शीर्ण मंदिर के भीतर चला गया। सूर्य अपने रथ पर आरूढ़, दसों दिशाओं में अपनी किरणों के रजत-तंतु बिखेर चुका था।
जून ४, २०१८
शशांकासन –

Sunday, October 9, 2022

अपनी पीठ पर अपना ही हाथ

मानस में तुलसी बाबा कहते हैं–
बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोई।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।।
तब महादेव ने भवानी से हँसकर कहा,"न कोइ ज्ञानी है, न ही कोई मूर्ख! श्री रघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है।"

लोकमान्यता है कि मूढ़ से मूढ़ और पतित से पतित प्राणी की जिह्वा पर भी दिन में एक बार माँ सरस्वती विराजमान होती हैं; बचपन में एक बार नानी जी के यहाँ ऐसी घटना देखी कि उस दिन से मन में ये बात घर कर गई। बड़े भइया के साथ गाँव में मॉर्निंग वॉक पर निकला था। आज भी वह दृश्य स्मृति में ज्यों का त्यों है–रेलवे स्टेशन के लोहे के पुल पर हम चल रहे थे कि वहीं किनारे में सोए एक भिखारी को भइया ने "राम राम" किया। भइया स्वयं साधुवृत्ति के हैं–गाँव में हर किसी से बड़े प्रेम से मिलते हैं। हमारे वहाँ पहुँचने के समय ही मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटा, उलझी दाढ़ी-मूँछ वाला वह व्यक्ति उठ कर बैठा ही था। भइया की राम-राम का उत्तर दे कर बोला,

"भाई, मनुज पर चार पहर तीन गुणों का पहरा रहता है। हम किस समय कैसी बात करते हैं, हमारा कैसा व्यहार होता है, ये इस पर निर्भर करता है कि हमपर कौन सा गुण भारी है।"
सवेरे के ठण्डे झोंकों ने मेरी पलकें भारी कर रखीं थीं। मैं इस ताक में था कि कब घर पहुँचूँ और बिस्तर में घुस कर फिर से सो जाऊँ। पर इस भिखारी के मुँह से ऐसी ज्ञान की बात सुनते ही नींद उड़ गई। आँखें मींच कर देखा, तो वही घिनौना सा दिखने वाला भिखारी अपनी बात को उदाहरण दे कर विस्तार दे रहा था और मैं मूढ़मति समझने के प्रयास कर रहा था। झीने से अस्पष्ट शब्द स्मरण आते हैं–

"तुमने मुझ जैसे को राम राम किया, ये सतगुन का प्रभाव है..." 

आगे की बात स्मरण नहीं। इस अधूरी बात को सोच कर लगता है जैसे नासमझी में कोई बहुत बड़ी निधि हाथों से निकल गई।

इतना सब लिखने के पीछे की बात ये रही कि अपने पहचान में सब से पतित प्राणी की कही बात ही कई बार निराशा भरे क्षणों में ढाढ़स बंधा गई–

"हम तो हनुमान जी के भक्त हैं। भले चम्मच से ही क्यों ना पहाड़ खोदना पड़े, खोदेंगे अवश्य!"

अपने ही शब्द–अपनी ही पीठ पर अपना ही हाथ। कदाचित इन्हें कहीं लिखते समय माँ सरस्वती ने मुझ जैसे कुटिल-खल-कामी पर अपनी कृपानिधि उड़ेल दी थी। फटी झोली में क्या ही समेटाता... पर इस एक स्वर्णकण को अपनी अंजुली में जब भी देखता हूँ, इतराने से चूकता नहीं मैं।
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Wednesday, October 5, 2022

पूर्वजों द्वारा शक्ति उपासना का उत्सव है दशहरा

अपनी भुजाओं की मछलियों को देख कर इतराते समय मन में कहीं कोई स्वर उठता है–"इदं न मम", और मैं मुस्कुरा उठता हूँ। 

दशहरे पर आयुध पूजन करते समय ध्यान आया कि आज सामने जो कुछ सजा था – ये लेखनी मम्मी की दी हुईं... ये मुद्गर दादाजी का दिया हुआ, और ये डम्बल पापा के हैं, जिन्हें पहली बार मैं ने ११वीं कक्षा में हाथ लगाया था...

बचपन में दादाजी को देखता था–सवेरे उठ कर छत पर योगाभ्यास करते थे। एक बार उनके अखाड़े में पुराने पट्ठों के भेंट-कार्यक्रम में मुझे साथ ले गए थे। मैं उनकी उँगली पकड़े वहाँ पहुँच कर सबकुछ देखता खड़ा था। कक्षा ५वीं में पापा का स्थानांतरण मुम्बई हुआ तो नागपुर पीछे छूट गया, पर यहाँ पापा को इन्हीं डम्बल से व्यायाम करते देखा था। 

आज जो कुछ मैंने पाया है, वह तीन पीढ़ियों और उससे अधिक के परिश्रम का फल है... सारे गुण, सारी सफलता, सारे सुख! मेरा क्या? 

योग-व्यायाम और इनके द्वारा गढ़े अनुशासन–ये उन वृक्षों समान हैं जिनके बीज एक पीढ़ी बोती है और आनेवाली पीढ़ियाँ उनके फल भोगती हैं। और यही बात संस्कृति के हर रंग-अङ्ग पर लागू होती है–ऐसे ही संस्कार-परम्पराएँ गढ़ी जाती हैं। 

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

दशहरे पर आयुध-पूजन और नवरात्रि शक्ति उपासना का पर्व... और इन दोनों के ठीक पहले पितृ-पक्ष!

शक्ति उपासना बिन बलि पूरी नहीं होती।

पित्तरों के अथक परिश्रम और उनके पारिवारिक हितों हेतु वैयक्तिक सुखों का बलिदान उनकी शक्ति उपासना थी... जिसका उत्सव उनके वंशजों के जीवन की विजया-दशमी!

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Tuesday, November 13, 2018

दिवाली : मिलाड को मेरा खुला प्रेम पत्र



 (फेसबुक लिंक)

"एक रहीन ईर, एक रहीन बीर, एक रहीन फत्ते, एक रहे हम.
ईर कहे चलो लकड़ी काट आएँ, बीर कहे चलो लकड़ी काट आएँ, फत्ते कहे चलो लकड़ी काट आएँ... हम कहा चलो हमऊँ लकड़ी काट आएँ"

पिछले कुछ समय से जिस प्रकार लोग #ओपन_लेटर- ओपन लेटर खेल रहे हैं.. उसे देखते हुए कवी हरिवंश राय बच्चन जी की इन पंक्तियों इस प्रकार भी बदला जा सकता है -

एक रहीन रवीश, एक रहीन बरखा, एक रहीन राजदीप, एक रहे हम.
रवीश कहें चलो ओपन लेटर लिखा जाए, बरखा कहें चलो ओपन लेटर लिखा जाए, राजदीप कहें चलो ओपन लेटर लिखा जाए... हम कहे चलो #खुला_पत्र लिखा जाए.

अब समस्या ये थी कि लिखें तो किसे लिखें? तो स्मरण आया कि हजूर #मिलाड से कुछ बातें कहनी थीं... इस कार्य हेतु इससे अच्छा अवसर क्या मिलता. तो #हजूर_मिलाड...

"के मेरा #प्रेम_पत्र पढ़कर, के तुम नाराज़ ना होना..."

वैसे, मुझ जैसों को 'कम्युनल' होने का लेबल मिल ही चुका है, तो बिना लोक-लज्जा और पोलिटिकली करेक्ट हुए, पत्र का "श्री गणेश" करते हैं...

माननीय #मिलाड_जी,

कुछ वर्षों पूर्व से #दीपावली पर लोगों को पर्यावरण की अत्यधिक चिंता सताने लगी है. वैसे तो हर हिन्दू त्यौहार पर लोगों को पर्यावरण की टांग टूटते दिखती है, परन्तु दिवाली पर इन कुछ लोगों की चिंता विशेषकर वायु प्रदूषण सम्बंधित होती है. इन चिन्ताओं और इन चिंताओं पर गहन मंथन से उपजे परिणाम को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है...

"एक रहे #लिबरल, एक रहे #एलिटिस्ट, एक रहे #पत्रकार, एक रहे मिलाड
लिबरल कहें चलो पटाखे बैन करवाएँ, एलिटिस्ट कहें चलो पटाखे बैन करवाएँ, #पत्तलकारकहें कहें चलो पटाखे बैन करवाएँ... मिलाड कहे चलो हमऊं पटाखे बैन करवाएँ"

अब हजूर, माईबाप, सरकार... लोग इतने उजड्ड हैं कि आप के #हुकुम की पटाखों के साथ-साथ धज्जियाँ उड़ा दिये... पूरा धुआँ-धुआँ कर दिए. ना केवल इतना, जनता आप की इस #आज्ञा को - १. अ-लोकतान्त्रिक २. गैरकानूनी ३. टिरैनिकल ४. अ-वैज्ञानिक ५. एलिटिस्ट कह रही है.

वैसे सच पूछिए तो मैं इन आरोपों में जनता के साथ हूँ. अब आप पूछियेगा कि जब आप ने जनता की भलाई के लिए ये बैन ठोका है, तो ऐसे आरोप कायकू? तो आइये इन आरोपों का विश्लेषण करें.

मिलौड़, आपको सन १८५७ की क्रांति का बिगुल बजाने वाले #मंगल_पाण्डे जी की कहानी तो स्मरण होगी ही. अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों को गाय और सूअर की चरबी वाले कारतूस प्रयोग करने के लिए विवश करने के प्रयत्न किये. हो सकता है कि ये कारतूस उन सैनिकों के लिए बेहतर होते, परन्तु वे उनका चुनाव नहीं थे - और ये पूरी घटना प्रतीकात्मक-सिम्बोलिक थी. लोगों को अपने भले-बुरे का चुनाव स्वयं करने की स्वतंत्रता चाहिए थी... विशेषकर उन विषयों में, जिनसे उनके जीवन के मूलभूत विश्वास जुड़े थे, आस्था जुड़ी जुड़ी थी.

१. #अलोकतान्त्रिक
भारत के सम्विधान के अनुसार हम "सॉवरेन, सोशलिस्ट, सेक्युलर, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक" अर्थात "स्वायत्त, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणतंत्र हैं" - लोकतंत्र और गणतन्त्र की परिभाषा के अनुसार इस देश का प्रशासन, इस देश की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि चलाएंगे. यही प्रतिनिधि इस देश के संविधान में आवश्यकतानुसार विधियों/लॉज़ को जोड़,घटा अथवा बदल सकते हैं.

भारत में जजों की नियुक्ति कैसे होती है? कोलेजियम द्वारा - मने, आपस में ही बैठ कर आप सब न्यायाधीश इस बात का निर्णय लेते हैं कि कौन-कौन जज बनेगा. इस विषय पर सविस्तार विडियो बनाऊंगा, परन्तु ये बात तो तय है कि आप की नियुक्ति-प्रक्रिया में जनता के मत का कोई स्थान नहीं है. मैं ये नहीं कह रहा कि इस प्रक्रिया में जनता का हस्तक्षेप होना चाहिए... अपितु मेरा कहना ये है कि लोकतन्त्र अथवा गणतन्त्र की परिभाषा के अनुसार दिवाली पर कोर्ट द्वारा सुनाए गए निर्णय लेने का का अधिकार कोलेजियम द्वारा नियुक्त किये गए लोगों को नहीं है - ये अधिकार जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का है, और उसकी भी एक प्रक्रिया है. यहीं पर जनता का दूसरा आरोप आता है -

२. #गैरकानूनी
ये बात मैं नहीं, सर्वोच्च न्यायलय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, अर्थात सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू जी कह रहे हैं. उनका कहना है कि -
"पटाखे फोड़ने के लिए समय-सीमा तय करने हेतु कोई कानून नहीं है, ना ही केवल ग्रीन-क्रैकर्स फोड़ने की अनुमति देने वाला कोई लॉ है. लॉ बनाने का काम विधान-मण्डल का है, ना कि न्यायपालिका का."

"यदि ऐसा कोई लॉ होता तो जज उसे एनफोर्स कर सकते हैं, परन्तु स्वयं नए कानून नहीं बना सकते. अतएव, दिवाली के पटाखों पर दिया गया ये निर्णय वैधानिक दृष्टिकोण से प्रभावहीन है"... सामान्य भाषा में कहा जाए तो "एकदम लुल्ल निर्णय" था ये.

३. #टिरैनिकल अर्थात #अत्याचारी
जब आप का निर्णय अपने आप में कोई वैधानिक औचित्य - #लीगल_इफेक्ट नहीं रखता, तो आप उसे पुलिस द्वारा एनफोर्स भी नहीं करवा सकते. परन्तु विभिन्न राज्यों में लोगों को अरेस्ट तो किया गया. सच पूछा जाए तो अधिकाधिक आप पटाखे फोड़ने पर आप लोगों को न्यायलय की अवमानना - #कंटेम्प्ट_ऑफ़_कोर्ट के आरोप में अपने यहाँ हाजिरी लगाने नोटिस भेज सकते थे, और कुछ अहिं. तो क्या ये जजों की #टिरैनी नहीं हुई?

क्या ये ठीक उसी प्रकार नहीं हुआ जैसा अंग्रेजों ने भारतियों के साथ किया था - जबरन गाय और सूअर के कारतूसों को दाँतों से छीलने लगाया था? जो मन में आया, वो करवाया?

४. #अवैज्ञानिक
सर, मेरा मोटापा बढ़ रहा है. मुझे क्या करना चाहिए? जिसे भी इस विषय पर तनिक भी नॉलेज होगा वो आपको बताएगा कि सबसे पहले खाने में शुगर और तलन वाले पदार्थ बंद करिए. साथ में थोड़ा व्यायाम कीजिये. अब जो स्वास्थ्य के प्रति सचमुच गंभीर होगा, वो इन बातों पर तुरंत अमल करेगा. परन्तु जिसे केवल दिखावा करना है, वो वैसे तो सब पिज्जा-बर्गर और अंट-शंट ठूँसेगा, परन्तु सब के सामने चाय में "शुगर-फ्री" लेगा ---- इसे ही कहते हैं "गुड़ खाए, गुलगुले से परहेज!"

तो बात ये है, कि पिछले कुछ वर्षों से लिबरलों, पत्रकारों और एलिटिस्ट लोगों के दिवाली पर प्रदूषण के नाम के #रुदाली_विलाप के कारण जनता ने इस गंभीर समस्या पर शोध प्रारम्भ की... जिसके फलस्वरूप लोग जान गए कि ये पटाखों का प्रदूषण "चाय की शक्कर" समान ही है. वास्तविक प्रदूषण तो खेतों में पराली जलाने से, कारखानों और वाहनों से हो रहा है. और तो और, खेतों वाला प्रदूषण भी इतनी बड़ी समस्या एक #कानून के कारण बनी - जिसका अधिकतर जनता को पता ही .नहीं. इसपर भी अलग वीडियो बनाऊंगा. पर बात की बात वही रही कि जब घर की छत टपकने लगे तो आप लोगों को रेनकोट पहनने को कह रहे हो. क्यों? क्योंकि कुछ एलिटिस्ट लोगों ने इसी बात की हवा बनाई हुई है और आप को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि सच में समस्या का समाधान क्या है!

५. #एलिटिस्ट
अब आते हैं इस पूरे विषय के निचोड़ पर - मिलाड, आप एलिटिस्ट हो!

लीजिये, कह दिया - खुले-आम, छाती ठोक कर! क्या करोगे? जिस प्रकार न्यायलय पर प्रश्न उठाने वाले हमारे पिछले वीडियो को कोर्ट ऑर्डर भेज कर बैन करवाया था, वैसे ये आर्टिकल भी बैन करवाओगे? कल्लो, जो बन पड़े. मैं तो ये भी घोषणा कर रहा हूँ कि आप के पिछले कोर्ट ऑर्डर के विरुद्ध भी विडिओ बनाऊंगा.

अब पुनः विषय पर आता हूँ. जब इस बात का ना कोई #वैधानिक आधार है, ना ही #वैज्ञानिक और ना #तार्किक - तब आप ने पटाखों पर ये निर्णय सुनाया तो सुनाया कैसे? "मेरी मर्ज़ी"?

सर, आप के बंगलों में जो दो-दो टन के एसी लगते हैं ना...उनसे कितना प्रदूषण होता है? आप जिन कारों में खावाखोरी करते हैं, उनसे कितना प्रदूषण होता है?

सबसे अधिक प्रदूषण तो आप और सारी एलीट, साधन-संपन्न, धनवान जनता करती है.

दिवाली किसके लिए सबसे अधिक इम्पोर्टेन्ट है, पता है? माध्यम वर्गीय और उनसे नीचे के हिन्दुओं के लिए. मुट्ठी-भर पटाखे फोड़ कर बच्चों की आँखों में दीपक जल उठते देखना अपने आप में जो सुख है, वो आप क्या जानो! ये सुख वे क्या जानें जिनके पास त्योहारों पर छाती कूटने के छोड़ कुछ नहीं होता!

सर, तुलना करिए कि सबसे अधिक कार्बन फुटप्रिंट किन लोगों का होता है - समाज के आर्थिक रूप से दुर्बल परिवारों का या आप धनाढ्यों का? ये ट्रेन-बसों में धक्के खा-खा कर यात्रा करने वाले... ये गर्मी में पसीना-पसीना होने वाले... ये आज भी घड़े का पानी पीने वाले... इनपर आप धौंस जमा रहे हो?

कौन हैं ये धौंस जमाने वाले... आते कहाँ से हैं?

इन्हें दिवाली पर एकदम से अपने कुत्तों की चिंता होने लगती है. पर जब हम अपनी कटती गौ-माता की रक्षार्थ गुहार लगाते हैं तो हम कम्युनल गुण्डे हो जाते हैं?

आप के #टौमी हमारी #कामधेनु से अधिक इम्पोर्टेंट हो गए? क्यों? क्योंकि हम सामान्य जनता हैं और आप सब ... सब माने, #एक्टिविस्ट, #एनजीओ, #पत्रकार, #सेलेब्रिटी और #जज... आप सब के सब ऊँचे महलों में रहने वाले?

निकल आया ना सत्य इस मन्थन से -- सामान्य जनता के विरुद्ध आप... आप जो #सामाजिक_न्याय अर्थात #सोशल_जस्टिस की बड़ी बड़ी बाते करते हो. इस #ट्रिकल_डाउन_सिस्टम में आप ऊपर बैठ पानी से अपने स्विमिंग पूल भरते हो, तत्पश्चात हमें होली पर "पानी की बर्बादी" वाला प्रवचन देते हो.

फ़्रांस में जब जनता भूखी थी, तो रानी ने कहा कि यदि तुम्हारे पास खाने के लिए ब्रेड/रोटी नहीं है, तो केक खा लो. उस जनता ने जो किया, उससे कुछ सीख लीजिये, माईबाप.

भवदीय

आशुतोष साहू 'साहूकार'
Ashutosh O. Sahu #SahuCar

Sunday, November 3, 2013

दिवाली और वॉचमैन का बेटा

॥श्री॥ 

पिछली दीपावली कि बात है। हमने तो नहीं ख़रीदे पर पापा को उनके किसी मित्र नें एक बड़ा बक्सा भर के पठाखे उपहार में दिए थे। बचपन कि बात और थी जब बिल्डिंग के मित्रों के साथ पटाखे फोड़ा करता था। अब कईयों कि नौकरी किसी और शहर में लग चुकी थी या फिर उन्होंने कहीं और घर ले लिया था। मेरे हमउम्र तो सारे जैसे गायब ही हो चुके थे। बस छुटके बच्चों को यहाँ से वहाँ फुलझड़ी लिए दौड़ते देख रहा था। अब पटाखे अकेले छुड़ाने में क्या मज़ा? दीवाली कि पूजा-पाठ कर के उठा तो मम्मी ने कुछ बचे हुए पटाखे मेरे हाथ में रख कर कहा कि आज के दिन कुछ तो पटाखे फोड़ने ही चाहिए। उन्होंने लगभग सारे पटाखे हमारे यहाँ की कामवाली दीदी को उनके बच्चों के लिए दे दिए थे और थोड़े से मेरे लिए बचा रखे थे। अब बच्चों के बीच में इतना बड़ा सांड पटाखे फोड़ते अच्छा थोड़े लगता है! पर मेरी माताश्री को कौन समझाए?

अनमना सा पटाखों कि थैली ले कर मैं बिल्डिंग के नीचे उतरा। सारे बच्चे पटाखों का आनंद उठा रहे थे।
नोबिन
मैं एक किनारे खड़े हो कर सब की मस्ती देखने लगा कि इतने में मेरी नज़र दूर खड़े वॉचमैन के ६-७ साल के बेटे पर पड़ी। किसी ने दो फुलझड़ियाँ दे दी थीं उसे, उसी में खुश हो गया… थोड़ी देर के लिए। फिर चुप खड़ा हो कर सब कि ओर ताकने लगा। कुछ सोचे बिना यूँ ही मैंने उसे आवाज़ लगा कर बुलाया और फुलझड़ी हाथ में थमा कर बोला "चल पटाखे फोड़ेंगे", आँखों में चमक आ गई छोकरे की! भाग कर अपने पिताजी के पास से दिया और माचिस ले आया और मेरे ही पास खड़ा हो कर फुलझड़ी जला कर उसे गोल गोल घुमाने लगा। खुशियां, हंसी और उत्साह बड़ी ही संक्रामक होती हैं - मुझे भी जोश आ गया। एक अनार निकाला और हो गयी रौशनी कि बरसात। अनार, सुतली बम, चक्र, फुलझड़ियाँ… हम दोनों ने मिल कर सब फूँक डाले। जब सारे पटाखे ख़तम हो गए तो लड़का उछल उछल कर तालियां बजा रहा था। इतने में कुछ और लोगों ने भी थोड़े से पठाखे उसे ला कर दे दिए। मैंने सोचा कि मेरा काम यहाँ ख़त्म , पर नहीं! लड़का सरे पटाखे ले कर मेरे पा दौड़ा आया और बोला "चलो न भैया, इनको भी फोड़ेंगे"…

आज तक शर्मीला सा चुपचाप सा 'नोबिन' अब रोज़ मेरे आते जाते मुझे आवाज़ ज़रूर लगाता है। मुट्ठी भर पटाखों के बदले ढेर सारी हंसी - सौदा बड़ा सस्ता था!
॥ शुभ दीपावली ॥

Monday, April 15, 2013

Technology and Ashirwad



A morning walk on beach is good for body, mind and soul. while the walk exercises the body, the mind gets time to ponder over things that we often overlook in our day to day life. The wind on your face with the sound of the waves make for a perfect setting. It is often at such a time and place, that you may stumble upon a pearl of wisdom.

During my morning walk today, as I walked past by a few sandcastles, I overheard a small conversation between a young lad, maybe around 21 years old, and an old retired couple. The boy was trying hard to explain some deep-techie-Gyan in simple Hindi. It appeared that the old couple had some technical difficulty with their new Mobile phone and asked the young man for assistance. Though I hope their problem was solved, It is difficult to conclude the same. The Old man while leaving placed his palm over the Lad's head -
an age old Hindu way of giving your blessings to someone. As they parted, the 3 of them shared smiles.

Normally, I wouldn't have  even noticed this conversation, but watching them all smile as they walked away made me think - how technical difficulties can help us overcome the giant gap between generations, New and Old - how a difficulty can be changed into an opportunity. The couple in asking the Lad for assistance, let go off their ego. Ego left and smiles blossomed.

While the young can help the elderly with technology, let us not forget, the former is equally in need of  spiritual guidance and support from the latter. Unlike earlier times, the exchange now is two way and the need to share is greater than ever. The key is to lose the EGO. The opportunity is here, lets embrace it. Let us RECONNECT.